Saturday, December 11, 2010

छलना

सर्दियों की नर्म धूप अभी

पक के जमी नहीं

और तू है के

अभी से अलावे

लगा के बैठी है

दुनिया समझती है

तुझसे बदलते

मौसम का मिजाज़

सहन नहीं होता शायद

पर हम जानते हैं

तू इस अलावे की आग में

अपने जीवन के राग को

जलाकर खाक करना चाहती है

और अपने अश्को को

आग की दें समझकर

खुद को भी छलना चाहती है

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