अधपकी रातों में
जब भी तेरी
पक्की यादें आती हैं
आंसू कि एक धार
अपनी निर्धारित
पगडण्डी से होकर
रोज़ तकिये की ओर
बरबस चली जाती है
बरसो का ये सिलसिला बदस्तूर अब भी जारी है
अब तकिया भी तकिया नहीं रहा
सिरहाने जैसे एक पत्थर सा बन गया है
जिसे हर रात एक और पत्थर
सोने से पहले धोता है.............
Sunday, May 30, 2010
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