Saturday, February 27, 2010

एक और पत्थर

अधपकी रातों में
जब भी तेरी
पक्की यादें आती हैं
आंसू कि एक धार
अपनी निर्धारित
पगडण्डी से होकर
रोज़ तकिये की ओर
बरबस चली जाती है



बरसो का ये सिलसिला बदस्तूर अब भी जारी है
अब तकिया भी तकिया नहीं रहा
सिरहाने जैसे एक पत्थर सा बन गया है
जिसे हर रात एक और पत्थर
सोने से पहले धोता है.............

No comments:

Post a Comment