Monday, May 5, 2008

मील का पत्थर

मील का पत्थर
राह जो दिखाता था
दफ़न हो चुका
अब हर राह अँधेरी
और मंजिल बेपता सी लगती है
ज़िन्दगी है की
इन गहरे अंधेरों में भी रूकती नहीं
बस रुक रुक के चलती है
सुबह का इन्तेज़ार कोई क्या करे ?
और कैसे करे ????????
आँखें न पलक झपकती हैं
ना इनकी नदी थमती है
बस एकटक घूरती रहती है
शायद राह दिखाने वाले
अपने सितारे को खोजती रहती हैं
न जाने क्यूँ
पौ से पहले की कालिख इतनी क्यूँ खलती है.

लो..... कहीं दूर
आस का पंछी
फिर से अपने पंख फडफडा रहा है
कोयल अपने पहले बोल बोली है
सूरज ने भी धीरे- धीरे एक अंगडाई ली है
पहली किरण भी निकली घर से
और सीधे मेरी ओर बढ़ी है
जो राह मेरी रोशन कर रही
धीरे से यह भी बता रही
एक नया मील का पत्थर
बस कुछ दूर आगे किसी मोड़ पे
मुझे राह दिखाने खडा है...

No comments:

Post a Comment