Monday, June 8, 2009

अंदाज़-ऐ-ज़िन्दगी

कभी थी जो बहार
वोह ज़िन्दगी अब
लगती है तलवार की धार
पल पल खून बहाती है
मेरा अपना
मेरी ही हाथो
रोज़ मेरा कत्ल करवाती है
फिर मेरी ही लाश को
मेरे ही कंधो पे लदवा के
अंगारों पे मुझे चलवाती है
न जाने क्यूँ ज़िन्दगी
अब इतना मुझे सताती है
कभी कभी सोचते है
तन्हाई के उन लम्हों में
कहीं मौत इसकी
सहेली तो नहीं बन गयी
जो ज़िन्दगी अब पहेली बन के रह गयी
जिसे हल करने की मेरी
हर कोशिश विफल गयी
फिर भी काबिले तारीफ है
ऐ ज़िन्दगी
जिस अंदाज़ से तू
मुझे छल गयी !!!!!!!1….

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