माननीय श्री मनमोहनजी
माननीय श्री चिद्म्बर्मजी
लेफ्ट के कमजोर सहारे पे टिक्की
यूँ ही आपकी सरकार बेहाल है
उस पे असमान छूती महंगाई
ने किया इसका और बुरा हाल है
इससे से पहले की अगले चुनाव में
आपकी ये बीमार सरकार परलोक सिधारे
मेरे घर एक बार आप अवश्य पधारे …
वैसे तो मै एक साधारण सी
मध्यम वर्गीय गृहणी हूँ
जो सादी दाल-रोटी सपरिवार खाती हूँ
वही आपको भी खिलाऊंगी
आकार मेरा आतिथ्य स्वीकारें
अब आगे मेरे निमंत्रण का
असल मकसद भी बांचे
“इस कमरतोड़ महंगाई
मेंजहाँ दाल -रोटी भी
बड़ी मुश्किल से जुटा पाते है,
बच्चे हैं की
अपने नए सपने नए अरमानों की
रोज एक फेहरिस्त लगाते है.”
“मेरा छोटा बेटा बिन कोटे का होकर
भी पोस्ट -ग्राजुअशन करना चाहता है,
उसकी महंगी फीस के
लिए अपनी दाल को काटू????
या रोटी को ग्रहण लगाऊ ????”“
उस पर बड़ा बेटा ..
अपनी एकलौती प्रेयसी को
छोटे मोटे तोहफे देकर खुश रखना चाहता है
इस विशेष खर्च का गणित
अपनी लड़खाद्ती बजट में कहाँ बिठाऊँ ?”
हे देश के करता -धरता
हे अंको , वित और गणित के
महानुभावो शायद मेरे ही सवालों में
आपको फिर से सरकार बनाने के पक्के कोई हल मिल जाये ....
.इसलिए कृपया यह निमंत्रण
ख़त नहीं तार समझकर स्वीकारें ….
और लालूजी की अगली गाड़ी पकड़ कर
मेरे घर अवश्य पधारे ...
Monday, May 26, 2008
Saturday, May 10, 2008
आज तुझे मैं बेच आया माँ....
हर रोज़ अपने दिल के चूल्हे
सुबह सुबह उठ कर
को खूब लीपता हूँ
फिर उसमे अपने
अरमानोंके कोयले जलाता हूँ
और घर के बच्चे खुछे
मिटटी के बर्तनों कोउन पर रख कर
रात भर जो भीने हैं
उन सपनो के दानो की
खिचडी उनमे पकाता हूँ
उस में सरकारी वादों का नमक
और
नेताई इरादों की मिर्च डालकर
ख्चिडी में कुछस्वाद ले की कोशिश करता हूँ
और इसे संतावना के
घी के साथ परोस कर सपरिवार खाता हूँ
कहने को तो मैं भी एक अन्नदाता हूँ
पर आजकल येही खाता हूँ
सोचता हूँ कभी की ख्याली पुलाव भी पका लू
और बच्चों को उनका भी स्वाद चखाऊ
पर बड़ी सूखि हैं अब हमारी आंते
इसे हजम न कर पाई तो ??????????
इसलिए खिचडी से ही कम चलाता हूँ
हाथी को मन और चींटी को कणदेने वाले
विधाता की कतार में भी
मैं सदा अन्तिम क्रम पे ही आता हूँ
.इसलिए हर रात sahkutumbh भूखा ही सोता हूँ
भूमिपुत्र होना मेरे लिए गर्व की बात है
पर गर्व से बच्चों का पेट नहीं भरता माँ
इसलिए आज में तेरा सौदा कर आया हूँ
तुझे एक माल बनाने वाले के पास बेच आया हूँ
मजबूर हूँ...माफ़ करना माँ
मैं भी अपने भूखे नंगे बच्चों को
दो वक़्त की रोटी देना चाहता हूँ...
सुबह सुबह उठ कर
को खूब लीपता हूँ
फिर उसमे अपने
अरमानोंके कोयले जलाता हूँ
और घर के बच्चे खुछे
मिटटी के बर्तनों कोउन पर रख कर
रात भर जो भीने हैं
उन सपनो के दानो की
खिचडी उनमे पकाता हूँ
उस में सरकारी वादों का नमक
और
नेताई इरादों की मिर्च डालकर
ख्चिडी में कुछस्वाद ले की कोशिश करता हूँ
और इसे संतावना के
घी के साथ परोस कर सपरिवार खाता हूँ
कहने को तो मैं भी एक अन्नदाता हूँ
पर आजकल येही खाता हूँ
सोचता हूँ कभी की ख्याली पुलाव भी पका लू
और बच्चों को उनका भी स्वाद चखाऊ
पर बड़ी सूखि हैं अब हमारी आंते
इसे हजम न कर पाई तो ??????????
इसलिए खिचडी से ही कम चलाता हूँ
हाथी को मन और चींटी को कणदेने वाले
विधाता की कतार में भी
मैं सदा अन्तिम क्रम पे ही आता हूँ
.इसलिए हर रात sahkutumbh भूखा ही सोता हूँ
भूमिपुत्र होना मेरे लिए गर्व की बात है
पर गर्व से बच्चों का पेट नहीं भरता माँ
इसलिए आज में तेरा सौदा कर आया हूँ
तुझे एक माल बनाने वाले के पास बेच आया हूँ
मजबूर हूँ...माफ़ करना माँ
मैं भी अपने भूखे नंगे बच्चों को
दो वक़्त की रोटी देना चाहता हूँ...
Thursday, May 8, 2008
खुदा- हाफिज़
यूँ तो आगे बढ़ कर लौटना
मेरी आदत नहीं
शायद तेरी भी नहीं
पर किसी जन्नत -नशीं की
खवाइश थी
और यह खुदा की भी मर्जी थी
फिर तेरे मेरे पवित्र -पुनीत -पाक
रिश्ते पर ग़लतफहमी का जो
भद्दा सा दाग था
उसका धुलना भी ज़रूरी था
इस दाग पे हमने
अपने दिल की दुआओं का
खूब साबुन घिस्सा है
फिर अपने गरम आँसूओ में
इसे खूब खंगोला है
और आखिर में इसे अपने
प्यार के कलफ में घोला है
मेरे यहाँ तो
सूरज ढलान पे है
पर तेरे आंगन की
धूप अब भी बड़ी तेज़ है
इसलिए
इसे वहीं सुखाने छोडा है
बस
एक गुजारिश है
जब ये रिश्ता पूरी तरह सूख जाये
तो इसे उठा लेना
और अच्छी सी तहें लगा कर
अपने दिल की अलमारी के
किसी अंधे कोने में
इसे रख देना
और हो सके तो
इसे चमचमाते
नए रिश्तों से ढँक देना ………..
खुदा-हाफिज़.
मेरी आदत नहीं
शायद तेरी भी नहीं
पर किसी जन्नत -नशीं की
खवाइश थी
और यह खुदा की भी मर्जी थी
फिर तेरे मेरे पवित्र -पुनीत -पाक
रिश्ते पर ग़लतफहमी का जो
भद्दा सा दाग था
उसका धुलना भी ज़रूरी था
इस दाग पे हमने
अपने दिल की दुआओं का
खूब साबुन घिस्सा है
फिर अपने गरम आँसूओ में
इसे खूब खंगोला है
और आखिर में इसे अपने
प्यार के कलफ में घोला है
मेरे यहाँ तो
सूरज ढलान पे है
पर तेरे आंगन की
धूप अब भी बड़ी तेज़ है
इसलिए
इसे वहीं सुखाने छोडा है
बस
एक गुजारिश है
जब ये रिश्ता पूरी तरह सूख जाये
तो इसे उठा लेना
और अच्छी सी तहें लगा कर
अपने दिल की अलमारी के
किसी अंधे कोने में
इसे रख देना
और हो सके तो
इसे चमचमाते
नए रिश्तों से ढँक देना ………..
खुदा-हाफिज़.
mera bachppan laut aya...
Mere mohalle mein
Khushiyon ka ana
Fir se shuru ho chukka hai
Yun to yahan
Garmi badi hai
Sharbaton ke dariya..
Behna shuru ho chukka hai
Kai dino se suna suna tha
Jo Mera angan…
Ab chachahane laga hai
Dhool padi thi jin khilono pe
Who bhi ab chamakne lagay hai
Koi roothne me
To koi manane me lagga hai
Kabhi koi ankh pe bandhe patti
To koi bichata shatranj ki bisat
Aur kahin lagi hai sanp aur seedhi
Kahin par kanche bikhare hai
To kahin gilli dande…
Gend kahin aur balla kahin…
Jo khud abhi gudiyan hai
Rachane challi gudde-guddi ki shadi
Gudiya ki maiya kab se…..
dahej sajane me laggi hai
Aur haye re gudde ke amma…
Bas munh fulane me
Aur bechare nanhe barati
bar bar sar se bhari apni
pagdi sambhlne me lagay hai
umr se pehle jo badha tha
meri ore budhapa
in nanhe farishton ko dekh….
ab apna saman bandhne lagga hai
dheere dheere mera bachppan
mere pas fir lautne lagga hai
mere mohalle me bachon ka vacation shuru ho chukka hai.............
Khushiyon ka ana
Fir se shuru ho chukka hai
Yun to yahan
Garmi badi hai
Sharbaton ke dariya..
Behna shuru ho chukka hai
Kai dino se suna suna tha
Jo Mera angan…
Ab chachahane laga hai
Dhool padi thi jin khilono pe
Who bhi ab chamakne lagay hai
Koi roothne me
To koi manane me lagga hai
Kabhi koi ankh pe bandhe patti
To koi bichata shatranj ki bisat
Aur kahin lagi hai sanp aur seedhi
Kahin par kanche bikhare hai
To kahin gilli dande…
Gend kahin aur balla kahin…
Jo khud abhi gudiyan hai
Rachane challi gudde-guddi ki shadi
Gudiya ki maiya kab se…..
dahej sajane me laggi hai
Aur haye re gudde ke amma…
Bas munh fulane me
Aur bechare nanhe barati
bar bar sar se bhari apni
pagdi sambhlne me lagay hai
umr se pehle jo badha tha
meri ore budhapa
in nanhe farishton ko dekh….
ab apna saman bandhne lagga hai
dheere dheere mera bachppan
mere pas fir lautne lagga hai
mere mohalle me bachon ka vacation shuru ho chukka hai.............
मेरी चिठ्ठी माँ के नाम
माँ मै हर साल इस दिन तुम्हारे साथ होती हूँ
पर माफ़ करना इस बार न हो पाऊँगी
जानती हूँ ..थोडा नाराज़ तुम मुझसे जरुर हो
अब मै भी एक माँ हूँ
इस दुनिया में
अपने बच्चे की ख़ुशी के अलावा
कुछ ना सोचना
यह मैंने तुमसे ही तो सीखा है
और
ज़िन्दगी में जो कुछ मैंने तुमसे सीखा है
एक पीढ़ी आगे बढाया है
एक पीढ़ी आगे बढाया है
यह समझ ले आज तेरे नाती की नहीं
तेरी बेटी की भी परीक्षा है
जिस डाल को
अपने आसूं देके सींचा है तुमने
उसपे अब फल लगाने की तय्यारी है…….
बस थोड़े दिन की और इन्तेज़ारी है
तब तक तुम मेरी तस्वीर से काम चलाना
मैंने तो तुम्हारी तस्वीर
अपने दिल में सजा के रखी है
माँ…अब आगे न लिख पाऊँगी…
जानती हू…तुम मेरे शब्दों में
भी मेरे आँखों की नमी पढ़ लोगी
और तेरी आँखें नम हों
यह मुझे कभी पसंद नहीं…….
पर माफ़ करना इस बार न हो पाऊँगी
जानती हूँ ..थोडा नाराज़ तुम मुझसे जरुर हो
अब मै भी एक माँ हूँ
इस दुनिया में
अपने बच्चे की ख़ुशी के अलावा
कुछ ना सोचना
यह मैंने तुमसे ही तो सीखा है
और
ज़िन्दगी में जो कुछ मैंने तुमसे सीखा है
एक पीढ़ी आगे बढाया है
एक पीढ़ी आगे बढाया है
यह समझ ले आज तेरे नाती की नहीं
तेरी बेटी की भी परीक्षा है
जिस डाल को
अपने आसूं देके सींचा है तुमने
उसपे अब फल लगाने की तय्यारी है…….
बस थोड़े दिन की और इन्तेज़ारी है
तब तक तुम मेरी तस्वीर से काम चलाना
मैंने तो तुम्हारी तस्वीर
अपने दिल में सजा के रखी है
माँ…अब आगे न लिख पाऊँगी…
जानती हू…तुम मेरे शब्दों में
भी मेरे आँखों की नमी पढ़ लोगी
और तेरी आँखें नम हों
यह मुझे कभी पसंद नहीं…….
Monday, May 5, 2008
मील का पत्थर
मील का पत्थर
राह जो दिखाता था
दफ़न हो चुका
अब हर राह अँधेरी
और मंजिल बेपता सी लगती है
ज़िन्दगी है की
इन गहरे अंधेरों में भी रूकती नहीं
बस रुक रुक के चलती है
सुबह का इन्तेज़ार कोई क्या करे ?
और कैसे करे ????????
आँखें न पलक झपकती हैं
ना इनकी नदी थमती है
बस एकटक घूरती रहती है
शायद राह दिखाने वाले
अपने सितारे को खोजती रहती हैं
न जाने क्यूँ
पौ से पहले की कालिख इतनी क्यूँ खलती है.
लो..... कहीं दूर
आस का पंछी
फिर से अपने पंख फडफडा रहा है
कोयल अपने पहले बोल बोली है
सूरज ने भी धीरे- धीरे एक अंगडाई ली है
पहली किरण भी निकली घर से
और सीधे मेरी ओर बढ़ी है
जो राह मेरी रोशन कर रही
धीरे से यह भी बता रही
एक नया मील का पत्थर
बस कुछ दूर आगे किसी मोड़ पे
मुझे राह दिखाने खडा है...
राह जो दिखाता था
दफ़न हो चुका
अब हर राह अँधेरी
और मंजिल बेपता सी लगती है
ज़िन्दगी है की
इन गहरे अंधेरों में भी रूकती नहीं
बस रुक रुक के चलती है
सुबह का इन्तेज़ार कोई क्या करे ?
और कैसे करे ????????
आँखें न पलक झपकती हैं
ना इनकी नदी थमती है
बस एकटक घूरती रहती है
शायद राह दिखाने वाले
अपने सितारे को खोजती रहती हैं
न जाने क्यूँ
पौ से पहले की कालिख इतनी क्यूँ खलती है.
लो..... कहीं दूर
आस का पंछी
फिर से अपने पंख फडफडा रहा है
कोयल अपने पहले बोल बोली है
सूरज ने भी धीरे- धीरे एक अंगडाई ली है
पहली किरण भी निकली घर से
और सीधे मेरी ओर बढ़ी है
जो राह मेरी रोशन कर रही
धीरे से यह भी बता रही
एक नया मील का पत्थर
बस कुछ दूर आगे किसी मोड़ पे
मुझे राह दिखाने खडा है...
Subscribe to:
Posts (Atom)