हर रोज़ अपने दिल के चूल्हे
सुबह सुबह उठ कर
को खूब लीपता हूँ
फिर उसमे अपने
अरमानोंके कोयले जलाता हूँ
और घर के बच्चे खुछे
मिटटी के बर्तनों कोउन पर रख कर
रात भर जो भीने हैं
उन सपनो के दानो की
खिचडी उनमे पकाता हूँ
उस में सरकारी वादों का नमक
और
नेताई इरादों की मिर्च डालकर
ख्चिडी में कुछस्वाद ले की कोशिश करता हूँ
और इसे संतावना के
घी के साथ परोस कर सपरिवार खाता हूँ
कहने को तो मैं भी एक अन्नदाता हूँ
पर आजकल येही खाता हूँ
सोचता हूँ कभी की ख्याली पुलाव भी पका लू
और बच्चों को उनका भी स्वाद चखाऊ
पर बड़ी सूखि हैं अब हमारी आंते
इसे हजम न कर पाई तो ??????????
इसलिए खिचडी से ही कम चलाता हूँ
हाथी को मन और चींटी को कणदेने वाले
विधाता की कतार में भी
मैं सदा अन्तिम क्रम पे ही आता हूँ
.इसलिए हर रात sahkutumbh भूखा ही सोता हूँ
भूमिपुत्र होना मेरे लिए गर्व की बात है
पर गर्व से बच्चों का पेट नहीं भरता माँ
इसलिए आज में तेरा सौदा कर आया हूँ
तुझे एक माल बनाने वाले के पास बेच आया हूँ
मजबूर हूँ...माफ़ करना माँ
मैं भी अपने भूखे नंगे बच्चों को
दो वक़्त की रोटी देना चाहता हूँ...
Saturday, May 10, 2008
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bahut gehrai hai har lafz mein badhai.
ReplyDeleteकविता अच्छी है।
ReplyDeleteआपका चिट्ठा जगत पर स्वागत है।