Saturday, July 19, 2008

ये कैसी मजबूरी

बंजर दिलों की ज़मीन
बीज ज़िन्दगी के सूखे
चुलू भर लहू सीने में
लाखों साँसों के कैसे सींचू????
हर दिल में आग नफरत की
हर घर में हिंसा की होली
दो नन्हे नयनो के नीर से
यह दहकते शोले कैसे भुजाऊँ????
प्रेम की हर माला टूटी है
मोती बिखरे हैं
कब्रस्तानो और शमशानों में
जो जोड़ सके फिर से ताने बाने
वो धागे प्रेम के कहाँ से लाऊ ????
पत्थर ही पत्थर फैले है
जीवन के हर एक कोने में
एक अकेली ……चेतना..
किस किस में जान डालू?????????

Thursday, July 10, 2008

मेरी वसीयत …

जब तुम मेरा ये काव्य पढोगे
तुम्हें कहीं विरह के
तो कहीं मिलन पल मिलेंगे
कहीं निराशा
तो कहीं आशा के कल मिलेंगे
आंसू की नदियाँ
कहीं तो ख़ुशी के समुन्दर मिलेंगे
बचप्पन की मासूमी
तो कहीं जवानी की नादानी
और
कहीं ढलती उम्र के सयानेपन मिलेंगे
ज़िन्दगी की पल पल से लडाई
तो कहीं उस -से किये बेमन समझौते मिलेंगे
कहीं शक की आंधी तो
कहीं चातक सा विश्वास मिलेगा
बस यूँ समझ लो
मेरे इन्द्रधनुषी जीवन का
’हर रंग इन पन्नो में मिलेगा
और
अंत में शायद कुछ पन्ने कोरे भी मिलेंगे
तब यह समझ लेना
इस कलम की स्याही सुख चली
तब तुम उन खाली पन्नो में
अपनी कलम से कुछ रंग भर देना
यूँ तो मेरा सारा काव्य तुम्हारे नाम है
बस ये कुछ पन्ने नाम मेरे कर देना …

दो किनारे

इक छोर मैं
इक छोर किस्मत
मेरी बीच हमारे सदियों का फासला
बस एक दूजे का अहसास रखते हैं
ना वो मेरे पास आ सकती
ना में उस तक जा सकती
बस यूँही दूर से इक दूजे को ताका करते हैं
लाख कोशिश की
हमने उस ओर जाने की
लाख कोशिश की उसने इस ओर आने की …
अब जाके सफल दोनों हुए
अब उस छोर मैं
और
इस छोर किस्मत मेरी
और हमारे बीच वही सदियों का फासला …..

चलो अब हम भी बतियाते हैं

बड़ी चतुर हमारी सरकार
करती हमेशा नए कमाल
कैसे ??????????
हम आपको बताते हैं ..
एक हफ्ते के राशन में
ही जेब होती अब पूरी तरह कंगाल ….
महीने के मध्य मैं
रसोई में डब्बे खलीबर्नियाँ पड़ी तंग-हाल
शुक्र है .
.मोबाइल का बैलेंस बाकी है
sarkari वादों से तो ऊब चुके
अब हम भी बातों से पेट भरते हैं
इसी बहाने ……………
अपने दांतों और आंतो को कुछ आराम भी दे देते हैं
..और अबसे जुबान से कम लेते हैं
नानी -दादी , चाची- मामी , बुआ -मौसी
सभी से जी भर ..ना ना पेट भर बतियाते हैं ….
चिदंबरमजी …
मुंह को खाना और बोलना
बस दो काम ही आते हैं
ये आप ही नहीं हम भी खूब जानते हैं ….
Kutumbhwalo
कितनी चतुर हमारी सरकार
रोटी -दाल से सस्ती कर दी STD.... काल

Tuesday, July 8, 2008

टूटी ग़ज़ल.....

बड़े नाजों से पाला था
शीशे सा संभाला था
जिसे वो ग़ज़ल ……………….
.कल मेरे हाथों से छुट गयी
और हजारों टुकडों में टूट गयी
अब हर तरफ मेरे बस लफ्ज़ ही लफ्ज़ बिखरे हैं …..
जो कभी मुझे सुकून देते थे
आज वो टूटे कांच से चुभते हैं …..
ऐ ग़ज़लों वाली लड़की सुन
थोडी आंच देकर
इन कांच के लफ्जों को पिघला दो
और
तुम ग़ज़लों वाले लड़के (खुदा )
इन पिघले लफ्जों को
नए सांचे में डाल
मेरी टूटी ग़ज़ल को नया रूप दे दो ….