Thursday, March 12, 2009

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धरा हूँ अपनी धुरी से हिल नहीं सकती
चाह कर भी अपने सूरज से मिल नहीं सकती
माना चाँद मेरा हिस्सा था कभी
फिर से उसे आँचल में छुपा नहीं सकती
अभी मेरे आँगन को और तपिश सहनी है
चांदनी को अभी और इस आँगन में खेलना है
कई बादल और बरसने है
इस मिटटी को और गिला होना है...
शायद
जीवन पोषण ही बस है ध्येय मेरा
इसलिए सदियों यूँही मैं चली हूँ
और सदियों और मुझे चलना है
सदियों और मुझे चलना है......

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