कारवां का अकेला राही
बढ़ता चला राहे रेगिस्तान पे
नक्शे कदम मेरे लिए कोई नही
राहे रेगिस्तान पे..........
अपनी राह ख़ुद बनता चला राहे रेगिस्तान पे
थक चला सूरज भी..ढल कर अपने
बिस्तर में सो गया....
मअं न थका...ख़ुद को जलाकर रौशनी की
राआहे रेगिस्तान पे
चाँद भी करके अमावस का बहाना
छुप गया ..तारे भी थक कर पडाव में बैठे रहे
मैं न रुका ......चलता चला
राहे रेगिस्तान में
ये आंधी , ये रेत के तूफ़ान
तोड़ पहाड़ चले जहाँ
मैं न टूटा वहां
राहे रेगिस्तान
की राही ठोस मंजिल का हु
रेत का ज़र्रा नही उड़ा लिया जाऊं
ये विश्वास ख़ुद को हर पल दिलाता चला
राहे रेगिस्तान पे.............
Tuesday, September 9, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
vah bhut badhiya rachna. badhai ho.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया। लिखते रहें।
ReplyDelete