Tuesday, April 17, 2012

आखरी ख़त

सुजा के बाबूजी शत प्रणाम......
यह घिनोना अपराध करने का ख्याल पहली बार तब मन में आया था
जब तुमने यह कह कर दिलासा मुझे दिलाया था......
सुजा की माँ आज एक रात और फुटपाथ पर सोता हूँ
शायद कोई धन्ना सेठ आ जाये और कम्बल दान कर जाये
बेच वो कम्बल बच्चो के दे जून खाने का इन्तेजाम बस हो जाये
कम्बल तो नहीं लाये तुम अपिव्तु कफ़न में लिपटे तुम जरुर आये....
लोगो के बर्तन धोकर किसी तरह बच्चो को अब तक पाला है
पर टी.बी ने अब मुझे पूरी तरह निचोड़ डाला है
तुम्हारा बेटे की भूख अब दो रोटी में नहीं भरती
और बेटी की जवानी अब फटे कपड़ो से है झांकती
और तुम ही कहा करते थे....
गरीब की बेटी पर सांझी नज़र होती है
वो अहसास भी हुआ ...जब चौराहे पर
कुछ मवालियो ने हमारी बेटी को छेड़ा था
बस गिनी चुनी साँसों से अब में जीने
और बच्चो को और जिलाने का कारोबार नहीं कर सकती
बेटी को मव्वालियो से बचने के लिए एक गोली खिला दी
और बेटे को इसलिए के अनाथ कहीं खुद मव्वाली न बन जाये...
अब ये आखिरी गोली मेरे नाम की....
हो सके तो हम सबको लेने स्वर्ग के द्वार आ जाना...
यहाँ साथ जी न सके...वहां साथ जरुर निभाना......

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