Tuesday, November 24, 2009

intezar

do thikre hath me liye wo gati rahi
pardesi pardesi jana nahi
bar bar jor jor se chilati rahi
apne nanhe hath wo
sabke agay failati rahi
athani..rupiya jo mila
sahej ke bantorti rahi

har dibbe me yahi dohrati rahi...
sanjh pade har pardesi...
train se utar
apne desh thikane jata raha

din bhar ki rozi...
apne aaka ke havale kar...
wo wahin train ke
andhere kisi dibbe me

fir subah hone ka intezar karti rahi...........

intezar

Sunday, November 1, 2009

rishte kuch aisi bhi

जिन्हें हीरे समझ संजोया था
वो रिश्ते पत्थर निकले
इंसान तो इंसान
वो हैवानो से बदतर निकले
रूह पे जो दिख रहे नील मेरी
वो घाव उनकी चाबुकों से निकले
अब तेरे दर पे बन दीवार खड़े है
या खुदाया.
कि हर आह का असर
हम खुद पे झेल ले
जो भी इस कराहती रूह से निकले
चाहे सहते सहते...
मेरा दम भी क्यों न निकले

ज़िन्दगी

लोग कहते हैं
जी लो कट जायेगी ज़िन्दगी जैसे तैसे
हम कहते है....
ज़िन्दगी कटती नहीं
हमें काटती है जैसे तैसे

अब ये खुद पे है
कि हम अपने वजूद का कौनसा हिस्सा
कटवाने के लिए उसके आगे रखे......

ek chhutki

देखो अब
इसमें विच्छेद का छेद् न होने पाए
तेरे रिश्ते कि नींव मेरे आंसूंओ पे टिक्की है.